जनवरी की सर्दी में
ठिठुरती बुढिया
जिसका बेटा पड़ा था ...
शहर के शराब के ठेके के बाहर
पिकर देसी ठर्रा
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कांपती हुयी बुढिया
ढांक रही थी बेटे के
शरीर को जो था एक अस्थियों का कंकाल
अपने पास के फटे चादर से
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कभी तांकती राहगीरों को ..
कभी बेटे को ..और फूट फूट कर रोती ...
अपने नसीब को ...
पूछती हिला हिला कर मुर्दे से शरीर को
क्या तुझे ईस लिये दिया था
जनम ?
और करती गुहार
हे भगवान
मुझे उठा क्यों नही लेता ?
कम्बख्त !
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ठिठुरती बुढिया
जिसका बेटा पड़ा था ...
शहर के शराब के ठेके के बाहर
पिकर देसी ठर्रा
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कांपती हुयी बुढिया
ढांक रही थी बेटे के
शरीर को जो था एक अस्थियों का कंकाल
अपने पास के फटे चादर से
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कभी तांकती राहगीरों को ..
कभी बेटे को ..और फूट फूट कर रोती ...
अपने नसीब को ...
पूछती हिला हिला कर मुर्दे से शरीर को
क्या तुझे ईस लिये दिया था
जनम ?
और करती गुहार
हे भगवान
मुझे उठा क्यों नही लेता ?
कम्बख्त !
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- महेशचंद खत्री .
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