कहे अनकहे ,पढ़े अनपढे ---- कुछ शब्दों का जाल , विचारों के यज्ञ में ---- शब्दों की आहुति ! --------------- शब्द समिधा --------------
Monday 5 November 2012
Wednesday 11 January 2012
मोमका पुतला
क्या मन हो
सागर के पानी की तरह
जो उछले ...लहरों की तरह ...
कुछ ऊँचाई तक फिर समाये
सागरमे ...
या हो रेत के टीले की तरह
जिसकी हो उम्र कुछ घंटो की या दिनकी
.....
मिटटी के उस टीले की तरह
जहाँ ना हो उपजाऊ जमीन
केवल अटका रखी जो जगह धरा की
या फिर हो
पर्वत की तरह
उचाईयों को छुता
लेकिन ..
कठोर ...
केवल चट्टानों को अपने में समाये हुवे
अडिग .. अविचल ...
या हो मोम की तरह मुलायम
पल की आँच में पिघल कर
धराशायी होने वाला
ओर
उन मोम के पुतलों की तरह
नकली ....
----------
सागर के पानी की तरह
जो उछले ...लहरों की तरह ...
कुछ ऊँचाई तक फिर समाये
सागरमे ...
या हो रेत के टीले की तरह
जिसकी हो उम्र कुछ घंटो की या दिनकी
.....
मिटटी के उस टीले की तरह
जहाँ ना हो उपजाऊ जमीन
केवल अटका रखी जो जगह धरा की
या फिर हो
पर्वत की तरह
उचाईयों को छुता
लेकिन ..
कठोर ...
केवल चट्टानों को अपने में समाये हुवे
अडिग .. अविचल ...
या हो मोम की तरह मुलायम
पल की आँच में पिघल कर
धराशायी होने वाला
ओर
मैडम तुसां
के अजयाबघर में बने उन मोम के पुतलों की तरह
नकली ....
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- महेशचंद खत्री .
आओ बौना बनें .
एक ही ऊँचाई से
टपककर
भिन्न भार वालीं चीजें
जब धरा की ओर
बढ़कर
एक ही समय
चूमती है जमीन को ...
आंदोलित झूला
गर ,
हर आंदोलन को
लेता है बराबर समय ..
आंदोलन हो पहेला या के अंतिम ...
क्यों करते है हम
फर्क ..
ये छोटा ...ये बड़ा ...
क्या ये भी सच नहीं ........
ऊँचे पेड़ छायादार नहीं होते ?
नाही लगते उनमें मीठे फल .....
क्यों फिर
बड़ा - छोटा
पहेला - अंतिम
ऊँचा - बौना ........?
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टपककर
भिन्न भार वालीं चीजें
जब धरा की ओर
बढ़कर
एक ही समय
चूमती है जमीन को ...
आंदोलित झूला
गर ,
हर आंदोलन को
लेता है बराबर समय ..
आंदोलन हो पहेला या के अंतिम ...
क्यों करते है हम
फर्क ..
ये छोटा ...ये बड़ा ...
क्या ये भी सच नहीं ........
ऊँचे पेड़ छायादार नहीं होते ?
नाही लगते उनमें मीठे फल .....
क्यों फिर
बड़ा - छोटा
पहेला - अंतिम
ऊँचा - बौना ........?
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- महेशचंद खत्री .
Tuesday 10 January 2012
कम्बख्त !
जनवरी की सर्दी में
ठिठुरती बुढिया
जिसका बेटा पड़ा था ...
शहर के शराब के ठेके के बाहर
पिकर देसी ठर्रा
-------------------
कांपती हुयी बुढिया
ढांक रही थी बेटे के
शरीर को जो था एक अस्थियों का कंकाल
अपने पास के फटे चादर से
------------------------------
कभी तांकती राहगीरों को ..
कभी बेटे को ..और फूट फूट कर रोती ...
अपने नसीब को ...
पूछती हिला हिला कर मुर्दे से शरीर को
क्या तुझे ईस लिये दिया था
जनम ?
और करती गुहार
हे भगवान
मुझे उठा क्यों नही लेता ?
कम्बख्त !
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ठिठुरती बुढिया
जिसका बेटा पड़ा था ...
शहर के शराब के ठेके के बाहर
पिकर देसी ठर्रा
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कांपती हुयी बुढिया
ढांक रही थी बेटे के
शरीर को जो था एक अस्थियों का कंकाल
अपने पास के फटे चादर से
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कभी तांकती राहगीरों को ..
कभी बेटे को ..और फूट फूट कर रोती ...
अपने नसीब को ...
पूछती हिला हिला कर मुर्दे से शरीर को
क्या तुझे ईस लिये दिया था
जनम ?
और करती गुहार
हे भगवान
मुझे उठा क्यों नही लेता ?
कम्बख्त !
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- महेशचंद खत्री .
मोतीया बिंदु .
बनता जा रहा है
मेरा मन भी अब ...
...........
जो रखा था कभी
किताब में सहेजकर
विगत जीवन...
दिल् की छवि ...
.........................
अब तो आँखों में समाया हुवा वो कल भी
ओझल होता जा रहा है
उस दृश्य की तरह
जो दिखाई देता है
उन
आँखों को
जिस आँख को हो बीमारी
' मोतीया ' बिंदु की .
क्या होगा संभव उसे देख पाना ?
पूर्व की तरह
साफ
बिना शिकन का वो चेहरा
मुस्कुराता हुवा ....
काश ..
बन सके वो
पीपल का पत्ता
फिरसे
हरा ...
भरा ...
चमकदार !
...............
मेरा मन भी अब ...
जालीदार
पीपल के पत्ते की तरह ..............
जो रखा था कभी
किताब में सहेजकर
जान से भी ज्यादा ...
पत्ते की जाली में दिखाई देता है विगत जीवन...
दिल् की छवि ...
उसका अक्स ...
धुन्दला सा.........................
अब तो आँखों में समाया हुवा वो कल भी
ओझल होता जा रहा है
उस दृश्य की तरह
जो दिखाई देता है
उन
आँखों को
जिस आँख को हो बीमारी
' मोतीया ' बिंदु की .
क्या होगा संभव उसे देख पाना ?
पूर्व की तरह
साफ
बिना शिकन का वो चेहरा
मुस्कुराता हुवा ....
काश ..
बन सके वो
पीपल का पत्ता
फिरसे
हरा ...
भरा ...
चमकदार !
...............
.महेशचंद खत्री .
पूर्णमासी का चंद्रमा .
सूरज के ढलने के बाद
वही हर पूर्णमासी की तरह
आज फिर ...
इंतजार उस चंद्रमा का
जिसके दर्शन से ...
या फिर ...
उछलती है सागर में लहरें
क्या वाकई ...
बचपन में बहलाया जाता था
बचपन में बहलाया जाता था
जिस चाँद को मामा बनाकर ...
अब हम उस चाँद को भी नहीं छोडेंगे ...
बेच डालेंगे धरती के टुकडों की तरह
उन पूँजीपतियों को ...
उन पूँजीपतियों को ...
जिन्होंने खोखला कर दिया है धरा को ...
यही सोचता रहेता हूँ ..पूर्णमासी से अमावस तक .....
- महेशचंद खत्री .
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